हास्य कवि शिरोमणि: काका हाथरसी – कविता और कहानियों का सफ़र

काका हाथरसी (मूल नाम: प्रभु लाल गर्ग) सिर्फ़ एक कवि नहीं थे, बल्कि सामाजिक विसंगतियों और पाखंड पर अपनी हास्य-व्यंग्य की कलम से तीखा प्रहार करने वाले एक युग पुरुष थे। उनकी कविताएँ और कहानियाँ सरल भाषा में गुदगुदी पैदा करती थीं, लेकिन उनके पीछे एक गहरा सामाजिक संदेश छिपा होता था। उन्होंने हास्य को केवल मनोरंजन तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उसे एक सार्थक हथियार बना दिया।
📝 काका हाथरसी: एक संक्षिप्त परिचय

काका हाथरसी का जन्म 18 सितंबर 1906 को उत्तर प्रदेश के हाथरस में हुआ था। उन्होंने अपना पूरा जीवन हास्य और व्यंग्य को समर्पित कर दिया। उनकी भाषा इतनी सहज और आम बोलचाल की होती थी कि वह सीधे पाठक या श्रोता के दिल तक पहुँच जाती थी। उन्होंने अपनी रचनाओं में सरकारी तंत्र, नेताओं की कथनी और करनी के अंतर, तथा आम आदमी की रोज़मर्रा की उलझनों को बड़े ही मज़ाकिया अंदाज़ में पेश किया। उन्हें 1985 में भारत सरकार द्वारा पद्म श्री से सम्मानित किया गया था।
📜 काका की हास्य कविताएँ: हँसी के रंग
काका हाथरसी की कविताएँ ऐसी हैं जो आज भी प्रासंगिक लगती हैं। यहाँ उनकी कुछ लोकप्रिय पंक्तियाँ और कविताएँ दी गई हैं:
1. "बीमार पति" पर कटाक्ष
यह कविता शादीशुदा ज़िन्दगी में पति-पत्नी के बीच होने वाली मीठी नोंक-झोंक और पति की छोटी-छोटी शिकायतों पर आधारित है, जिसे काका ने बड़े हल्के-फुल्के अंदाज़ में लिखा है:
बीमार पति से पत्नी बोली, "तबीयत अब कैसी है?"
बोला- "अच्छी है।"
पर तुमको क्यों लग रहा है कि अभी भी कमज़ोरी है?
उसने कहा- "इसलिए कि तुम मुझे 'जानेमन' नहीं, 'कमबख्त' कह रहे हो!"
2. सामाजिक विसंगति पर व्यंग्य
इस कविता में काका ने दिखाया है कि कैसे लोग दूसरों के काम में दखलंदाज़ी करते हैं और अपनी राय थोपते हैं:
दुकानदार से बोला ग्राहक, "भाई, एक साबुन दिखाना।"
दुकानदार ने कहा, "यह लो, सबसे बढ़िया साबुन है, मेरी पत्नी भी यही लगाती है।"
ग्राहक बोला- "अरे भाई! मुझे अपने लिए साबुन चाहिए, अपनी पत्नी के लिए नहीं!"
(यहाँ व्यंग्य यह है कि लोग अपनी निजी राय को सर्वश्रेष्ठ बताकर थोपते हैं)
3. "नेताजी और चुनाव" (कुछ पंक्तियाँ)
राजनीति और नेताओं पर उनका व्यंग्य बहुत तीखा और सीधा होता था:
जनता बोली, नेताजी से, अब की बार क्या दोगे?
नेताजी बोले, वोट दे दो, अगली बार भी आऊँगा।
इस बार का वादा मत पूछो, अगले वादों को सुन जाओ।
तुमको सपने बेचूँगा, बस तुम कुर्सी को गिन जाओ!
📖 काका की हास्य कहानियाँ: छोटे-छोटे किस्से
काका हाथरसी केवल कविता तक ही सीमित नहीं थे; उन्होंने छोटे-छोटे हास्य संस्मरण और कहानियाँ भी लिखीं जो आम जीवन की घटनाओं पर आधारित थीं।
कहानी: "मुफ़्त की सलाह"
एक बार काका हाथरस में एक बाज़ार से गुज़र रहे थे। उन्होंने देखा कि एक सज्जन बड़े परेशान होकर अपनी पुरानी साइकिल का टायर बदलवा रहे थे। काका उनके पास गए और बड़े दार्शनिक अंदाज़ में बोले:
काका: "क्यों भाई, इतना परेशान क्यों हो?"
सज्जन: "क्या बताऊँ काका, ये टायर बार-बार पंक्चर हो जाता है। नया लेने के पैसे हैं नहीं, और पुराना चल नहीं रहा।"
काका ने थोड़ी देर सोचा और गहरी साँस ली, जैसे कोई बड़ा रहस्य बताने वाले हों। बाज़ार के कई लोग उत्सुकता से उन्हें देखने लगे।
काका: "भाईसाहब, एक मुफ़्त की सलाह दूँ? जब साइकिल चलाना हो, तब चलाओ। लेकिन जब खड़ी करनी हो, तो उसे ज़मीन से थोड़ी ऊपर उठा कर खड़ी करो।"
सज्जन (हैरान होकर): "क्यों काका?"
काका: "ताकि टायर को आराम मिले, ज़मीन से दूर रहे, और पंक्चर होने का ख़तरा कम हो जाए!"
परिणाम: इस पर सभी लोग हँसने लगे, और सज्जन को समझ आ गया कि मुफ़्त की सलाह अक्सर बेतुकी होती है। काका ने इस छोटी सी घटना से यह संदेश दिया कि हर कोई अपनी राय देता है, भले ही वह कितनी ही अतार्किक क्यों न हो।

काका हाथरसी की प्रसिद्ध कविताएँ (Kaka Hathrasi Poems)
1. नेताजी से
यह कविता नेताओं के झूठे वादों और चुनावी हथकंडों पर तीखा व्यंग्य करती है:
जनता: "नेताजी! अबकी बार क्या-क्या काम कराओगे?"
नेताजी: "वोट हमें दो, फिर देखो, हम तुम्हें क्या दिखलाएँगे।
गंगा-यमुना, सरस्वती, सब बहेंगी दूध-दही से,
सड़कें बनेंगी सोने की, खुशबू आएगी गंधक-रही से।"
जनता: "वाह! फिर तो हम सब आपको ही वोट देंगे।"
नेताजी: "बस एक शर्त है भाई, सपना देखना बंद न कर देना!"
2. पत्नी-प्रेम (हास्य संस्करण)
यह कविता पति-पत्नी के रिश्ते की खट्टी-मीठी नोकझोंक और पति के प्रति पत्नी के अधिकार-भाव पर आधारित है:
अफ़सर हो या अफ़सर का साला,
पत्नी के आगे सब डरने वाला।
घर में हूँ तो मौन रहूँगा,
बाहर हूँ तो मोन रहूँगा।
पत्नी पूछे, "आज कहाँ गए थे?"
"क्यों गए थे?" "किसलिए गए थे?"
मैंने कहा, "देवी! आज तो मैं सिर्फ़ मंदिर गया था।"
बोलीं- "तो क्या तुम वहाँ भी अकेले गए थे?"
3. आधुनिकता पर व्यंग्य
इस कविता में आधुनिक जीवनशैली और दिखावे की प्रवृत्ति पर काका ने मज़ाक उड़ाया है:
कपड़े हैं विदेशी, पर दिल है देसी,
खान-पान विदेशी, पर पेट है देसी।
गद्दे पर सोता हूँ, पर नींद नहीं आती,
क्योंकि नींद तो आती है तब, जब होती है चटाई बिछी हुई देसी।
मोटर में चलता हूँ, पर डर लगा रहता है,
क्योंकि डर तो मिटता है तब, जब चलते हैं पैरों के तले देसी।
4. मुफ़्त की सलाह
यह उनकी एक लघु कविता है जो लोगों की बेवजह सलाह देने की आदत पर व्यंग्य करती है:
काका हाथरसी ने कहा, सुनो भई, बात अनोखी।
हर कोई सलाह दे, पर कोई न माने अपनी!
जिसको देखो, वही ज्ञानी है,
दुनिया में सब जगह परेशानी है।
परेशान जो तुम दिखो ज़रा,
मुफ़्त की सलाह मिलेगी हज़ार!

✨ काका का महत्व
काका हाथरसी का योगदान केवल हँसाना नहीं था, बल्कि हमें अपनी कमियों और अपने समाज की बेवकूफियों पर हँसना सिखाना था। उनकी रचनाएँ आज भी हमें यह याद दिलाती हैं कि गंभीर से गंभीर बात भी मुस्कुराते हुए कही जा सकती है।

टिप्पणियाँ